कर्नाटक के गर्वनर वजुभाई वाला का निर्णय सही भी है साहसिक भी
कर्नाटक के गर्वनर वजुभाई वाला का निर्णय सही भी है साहसिक भी |
ठीक उस वक्त जब ये लफ्ज लिखे जा रहे हैं तो फिर से वही नागवार खबर आयी है कि राहुल गांधी ने एक और बचकाना बयान दे डाला है. राहुल ने बीजेपी के शासन वाले भारत की न्यायपालिका की तुलना पाकिस्तान से की है. चलो, अच्छा है- हमारा सौ सलाम भारतीय राजनीति के इस 'सदाबहार बच्चे' को जिसने सयाना होने से हमेशा के लिए इनकार कर दिया है और हमारी जान के सदके उस हांफती-कांपती पार्टी पर जो चाहे कुछ भी हो जाय मगर इस शख्स के सिमटे दायरे से आगे बढ़ना ही नहीं चाहती.
खैर, बार-बार हार का स्वाद चखने वाले एक शख्स का जिक्र छेड़कर मैं ये लेख बर्बाद नहीं करूंगा क्योंकि कर्नाटक में हुए चुनाव के नतीजों के गड़बड़झाले के बीच कुछ मसले कहीं ज्यादा अहम होकर उभरे हैं.
कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने बीएस येद्दुरप्पा को न्यौता दिया है के वे आयें और कर्नाटक में अपनी पार्टी की सरकार बनायें. राज्यपाल के फैसले को लेकर खूब बवाल कट रहा है. कांग्रेस तो सुप्रीम कोर्ट तक चली गई. कांग्रेस कह रही है कि यह लोकतंत्र की हत्या है. मैं इस लेख में कुछ नजीर के सहारे अपनी बात कहूंगा जिनमें कानून का पहलू भी होगा और नैतिक तथा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी और इन नजीर के सहारे मैं यह बताउंगा कि राज्यपाल का फैसला किन वजहों से एक मजबूत और साहसी फैसला है तथा क्यों इस फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए.
गांधीजी का यह कथन बहुत मशहूर है कि जो चीज नैतिक रूप से गलत है वह राजनीतिक रूप से सही नहीं हो सकती. तो फिर कर्नाटक के मसले में गलत क्या हुआ है-- अ) क्या यह कि एक पार्टी ने तकरीबन 47 फीसद सीटें जीती हैं और बहुमत के आंकड़े से बस चंद कदम दूर रह गई है और यह पार्टी दावा जता रही है, कह रही है कि सरकार बनाने का पहला मौका उसे मिलना चाहिए क्योंकि लोगों की भावनाएं कमोबेश उसकी तरफ हैं, या ब) यह कि बस 38 सीटें जीतने वाली एक क्षेत्रीय पार्टी जिसने महज दो हफ्ते पहले एक आरोप पत्र जारी करते हुए कांग्रेस को भ्रष्टाचार, अपराधीकरण और लोगों को आपस में बांटने का दोषी बताया था, अब उसी कांग्रेस पार्टी का सहारा लेकर सरकार बनाने पर तुली है ? इसके अतिरिक्त, जब दो पार्टियां सुर मिलाकर दावा कर रही हैं कि वे सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ एकजुट हैं तो यहां यह भी याद रखना होगा कि महज 10 दिन पहले राहुल गांधी ने जेडीएस के आगे ताल ठोंका था कि वो बताये कि उसके नाम में लगे ‘एस’ का मतलब ‘सेक्युलर’ समझा जाये या फिर ‘संघ.’
जुम्मा-जुम्मा आठ रोज की क्षेत्रीय पार्टी और इस पार्टी का व्यभिचार
कांग्रेस एक बेशर्म शै का नाम है. लोगों ने कांग्रेस को जब भी सत्ता के बाहर का रास्ता दिखाया है वह पिछले दरवाजे से आकर सत्ता से चिपक गई है. इस देश में कांग्रेस ने 1979 में चौधरी चरण सिंह को समर्थन दिया तथा 1996 में उसने देवगौड़ा को सहारा दिया. यह कांग्रेस के अवसरवाद का सबसे बढ़िया उदाहरण है. इसलिए, अगर कांग्रेस ने अभी अपना जोर जेडीएस की तरफ लगाया है तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि कांग्रेस फिलहाल अपना वजूद बचाने के संकट से जूझ रही है. दूसरी तरफ, जहां तक जेडीएस का सवाल है, वह बड़ी विचित्र क्षेत्रीय पार्टी है. अव्वल तो उसका वजूद सिर्फ एक सूबे तक सिमटा है, दूसरे इस एकमात्र सूबे में भी उसे कभी 30 फीसद से ज्यादा सीटों पर जीत नहीं मिली. हालात ने ऐसी करवट ली थी कि देवगौड़ा 1996 में प्रधानमंत्री बन गये और इसी के बाद से उनके बेटे कुमारस्वामी ने भी सोच लिया कि किस्मत का वैसा ही जादू उनके साथ भी चलेगा और वे कर्नाटक के मुख्यमंत्री बन जायेंगे. एक बार ऐसा पहले 2007 में हो चुका है और 2018 में एक दफे फिर से वैसी ही स्थिति बनी दिख रही है.
चूंकि बीजेपी और जेडीएस दोनों ने सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ जोरदार लड़ाई की सो यह तो एकदम साफ है ही कि जनादेश सत्ता में मौजूद रहे दल के खिलाफ है. ऐसी स्थिति में नैतिकता तकाजा तो यही है कि जेडीएस या तो बीजेपी को सरकार से बाहर रहते हुए समर्थन दे (या बहुमत साबित करने के लिए होने वाले मतदान में शिरकत ना करे) या फिर वह ये कर सकती है कि बीजेपी की अगुवाई में रहते हुए गठबंधन की सरकार बनाये. आपस में रिश्ता गांठकर इन दोनों (जेडीएस और कांग्रेस) पार्टियों ने अपने भ्रष्टाचारी चरित्र का ही परिचय दिया है. अगर जेडीएस कांग्रेस के खिलाफ अपना आरोप-पत्र सार्वजनिक रूप से वापस नहीं लेती या फिर इस बात के लिए माफी नहीं मांगती कि उसने लोगों को भरमाये रखा तो फिर इन दोनों पार्टियां का एकसाथ होना कुछ और नहीं बल्कि जनादेश को अंगूठा दिखाने वाली हरकत ही कहलाएगा.
सो, इस मामले में ना तो कांग्रेस इस स्थिति में है कि नैतिकता के ऊंचे सिंहासन पर चढ़कर अपनी दावेदारी जताये और ना ही जेडीएस का कोई नैतिक दावा बनता है. इसके उलट, सच तो ये है कि इन दोनों पार्टियों का मसले पर एक साथ होना खुद में अवैध है, एक खुराफाती काम है जो जनादेश में सेंधमारी कर रहा है.
जरा इन्हें इतिहास का आईना दिखाइए
अपने बुद्धि-विलास में डूबती-उतराती लुटियन्स दिल्ली की मीडिया अभी बोम्मई मामले मे दिए गए फैसले का हवाला देकर राज्यपाल के फैसले पर अपने कोड़े फटकारे में लगी है. लेकिन सच बात ये है कि कर्नाटक के अभी के मसले पर बोम्मई मामले में आया फैसला लागू ही नहीं होता. एक सूबे की सरकार को गलत तौर-तरीके अपनाते हुए गिरा दिया गया था, उसे विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका नहीं दिया गया था. बोम्मई मामले में आये फैसला का रिश्ता उस वाकये से है. सो, बोम्मई मामले में आया फैसला अगर कहीं सबसे ज्यादा लागू होता है तो वह है गुजरात सरकार के साथ पेश आया वाकया जब बोम्मई मामले में दिए गए दिशा-निर्देश को एक किनारे रखते हुए प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने तकरीबन इसकी आत्मा को मारने सरीखा काम किया और सुरेश मेहता की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार को गलत तरीके से हटा दिया था. तब रचने वाले शंकरसिंह वाघेला को गुजरात में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठाया गया था.
कर्नाटक के मौजूदा मामले में जो नजीर मायने रखती है उसका रिश्ता 1989, 1991 तथा 1996 में केंद्र में बनी सरकारों के मामले में अपनाये गए तौर - तरीके से है.
एच डी देवेगौड़ा
साल 1989 में कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करने वाली पार्टी बनकर उभरी. उसकी झोली में कुल 192 सीटें आयीं जबकि जनता दल, वामधारा की पार्टियों तथा बीजेपी के बीच हुए चुनाव-पूर्व गठबंधन को इससे कहीं ज्यादा सीटें थीं. राष्ट्रपति ने ‘गठबंधन’ में शामिल दलों को ही सरकार बनाने का न्यौता दिया. साल 1991 में कांग्रेस पार्टी को 244 सीटें मिली थीं और वह बहुमत के आंकड़े से चंद कदम पीछे रह गई थी. लेकिन चुनाव-पूर्व कोई गठबंधन नहीं बना था सो सरकार कांग्रेस की बनी और उसे वामधारा की पार्टियों तथा अन्य दलों ने मुद्दा-आधारित समर्थन दिया. इस समर्थन के बूते केंद्र में कांग्रेस की पांच साल तक सरकार चली.
1996 में एक बार फिर से सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाले दल बीजेपी को सरकार बनाने का न्यौता मिला. बीजेपी को 161 सीटें मिली थीं लेकिन चुनाव-पूर्व कोई गठबंधन शक्ल ना ले सका था. लेकिन इस बार नजारा 1991 के एकदम उलट था,वाजपेयी सरकार को अन्य दलों का समर्थन नहीं मिला और इस सरकार को सदन में बहुमत साबित करने के पहले ही इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन इन उदाहरणों से निकलकर आने वाली इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सबसे ज्यादा सीट जीतने वाली पार्टी को सरकार बनाने से रोकना अनैतिक है. उस वक्त सेक्युलर पार्टियों ने अपनी चतुराई का खेल रचा था, इन पार्टियों ने एक नागवार गठबंधन बनाना पसंद किया जिसे कांग्रेस का समर्थन हासिल था और सरकार कायदे से दो साल भी नहीं चल सकी, दो प्रधानमंत्री देखते-देखते ‘आये-गये’ की नियति के शिकार हुए.
तो इतिहास बताता है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर हमेशा इसी नजीर का पालन किया जाना चाहिए.
आगे-आगे देखिए होता है क्या ?
रिश्तों में बेवफाई की और भी शक्लें होती हैं, जरूरी नहीं कि जिस्मानी ताल्लुक की बिनाह पर ही किसी रिश्ते में बेवफाई ढूंढ़ी जाय. ठीक वैसे ही राजनीति में सांसदों-विधायकों की तोड़-फोड़ हमेशा पैसों के लेन-देन से हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन जेडीएस स्वभाव से रपटीली है, वह कभी इधर फिसलती है कभी उधर. ऐसे स्वभाव वाली पार्टी जेडीएस जब एक बेबुनियाद आरोप लगाती है कि उसके विधायकों को मोटी रकम देकर फुसलाया-बहकाया जा रहा है तो फिर कहना होगा कि जेडीएस जैसी पार्टियों के लिए राजनीति का मतलब और मकसद सिर्फ इतने तक ही सीमित है. सच्चाई क्या है? सच्चाई ये है कि केवल 38 विधायकों के दम पर एक पार्टी का नेता मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहा है और यह विधायकों की तोड़-फोड़ का सबसे जाहिर उदाहरण है.
आज के हालात में तो कुछ भी संभव है. सिद्धांत की जमीन पर देखें तो बीजेपी जेडीएस के किसी नेता को उप-मुख्यमंत्री के पद की पेशकश कर सकती है और ऐसा व्यक्ति जेडीएस के एक तिहाई विधायकों को तोड़कर बीजेपी की तरफ आ सकता है. ऐसे व्यक्ति को केंद्र में मंत्री-पद की भी पेशकश की जा सकती है. यह भी हो सकता है कि कांग्रेस और जेडीएस के 8-9 लिंगायत विधायक अपनी अंतरात्मा की पुकार के नाम पर पार्टी से इस्तीफा दे दें और इसके एवज में उन्हें बाद के वक्त में कुछ ना कुछ ‘इनाम’ के तौर पर दिया जाय. या फिर, बहुत बुरा होगा तो हद से हद इतना ही कि हम सदन में बहुमत साबित ना कर पायें. तो भी एक अपवित्र और अवसरवादी गठजोड़ को तरजीह देकर जनादेश में सेंधमारी करने की जगह अगर विधिवत पूरी प्रक्रिया अपनायी जाती है तो इन सारी ही स्थितियों में जीत लोकतंत्र की होगी.
जैसी करनी वैसी भरनी
जब राहुल गांधी कहते हैं कि लोकतंत्र खतरे में हैं तो उनके इस कहे पर गौर करके बेहयाई भी शर्मा जाये. चुनावों में तिकड़म भिड़ाने का तो कांग्रेस का पुराना इतिहास रहा है, यह पार्टी सूबे की निर्वाचित सरकारों को पिछले दरवाजे से घुसकर धक्का देती रही है. सो अब अगर हालात उलटे पड़ रहे हैं तो कांग्रेस को धीरज दिखाना चाहिए और मसले से शांति से निबटना चाहिए.
साल 2005 में यूपीए ने झारखंड में एनडीए को सरकार बनाने से रोक दिया था, हालांकि तब संख्या-बल एनडीए के पास मौजूद था. इसके बाद जो कुछ हुआ वह भारतीय लोकतंत्र के सबसे स्याह पन्नों में शुमार है. आखिर में हुआ यह कि कांग्रेस को धूल चाटनी पड़ी और उसकी साख एकदम से जाती रही.
साल 1987 में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस ने कश्मीर के चुनावों में हेराफेरी की और यही हेराफेरी कश्मीर के हालात के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुई. कांग्रेस की कारस्तानियों की सूची बहुत लंबी है. अच्छा है कि राहुल गांधी कुछ कहें तो उन्हें इतिहास की सच्चाइयों का आईना दिखाने की जगह उनपर दया दिखायी जाय और उनकी बातों को अनदेखा किया जाय. राहुल की पार्टी के बाकी सदस्यों को इतिहास के तथ्य खूब पता हैं.
इस जिक्र से मुझे इस लेख में आयी अपनी पहली बात याद आ रही है. महात्मा गांधी ने कहा था कि जो नैतिक रूप से गलत है वह राजनीतिक रूप से सही नहीं हो सकता. इस वक्त गांधीजी ने जिस बात को तफ्सील से नहीं कहा था और वेस्टमिंस्टर पद्धति से चलने वाले लोकतंत्र पर जो बात लागू होती है वो ये है : जो बात नैतिक रूप से ठीक नहीं जान पड़ती वह कभी-कभार कानूनी रूप से ठीक भी हो सकती है और तब ऐसे मामले में नैतिकता दरअसल इस बात पर निर्भर करती है कि आप मन में चीजों को किस तरह देखना चाहते हैं.
यह उपदेश हर पार्टी पर लागू होता है कि वो पहले खुद कोई काम करके दिखाये और उस काम की बिनाह पर नैतिकता की दुहाई दिया करे लेकिन ध्यान रहे कि आपके पीठ पर पिछले वक्त के बुरे कर्मों का बोझ बड़ा नहीं होना चाहिए, बुरे कर्मों का बोझा बड़ा हुआ तो वह आपको चैन की सांस नहीं लेने देगा. कांग्रेस के माथे पर अभी कई दशकों के पापों का बोझ लदा हुआ है और आज कांग्रेस उन पापों का ही फल भोग रही है.
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